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________________ अड़सठवां बोल-३२७ भी भोगना है और विपाक से भोगना भी भोगना है। दोनो प्रकार से कर्म भोगे जाते हैं । परन्तु ज्ञानी पुरुष क्रोध, मान, माया और लोभ आदि को जीतकर तथा तपश्चर्या द्वारा कर्मों की निर्जरा करके आत्मा को उज्ज्वल बनाते हैं । इस प्रकार धमक्रियारूपी भाग मे अगर कमाकुर दग्ध न किये जाएँ तो उन्हे विपाक से भोगना पडता है और तब महान् कष्ट होता है। इस तरह जब कर्म सरलतापूर्वक भोगे जा सकते हैं तो फिर उन्हे महाकष्टपूर्वक क्यो भोगना चाहिए? इस प्रकार विचार करके ज्ञानीजन कर्म की निर्जरा करने का प्रयत्न करते हैं । जब थोडा-सा प्रयास करने से ही कर्मविपाक का घोर कष्ट टल सकता है तो पहले थोडा सा कष्ट सहन न करके विपाक के समय महादु ख सहना कौनसी बुद्धिमत्ता है? कर्म-विपाक के महान कष्ट से बचाने के लिए ही भगवान् ने मान को जीतने का उपदेश दिया है। क्योकि मान को जीतने से जीवन मे नम्रता आएगी और नम्रता से कर्मों की निर्जरा होगी। इस शास्त्रीय विषय को सष्ट करने के लिए एक उदाहरण लीजिए : एक रोगी को भयङ्कर रोग हुआ । उसने वैद्य से शरीर की परीक्षा करवाई । वैद्य ने रोगो से कहा अगर तुम्हें 'इन्जेक्शन' लगा दिया जाये तो तुम रोग की भयङ्करता से बच सकते हो । तुम एक-दो इन्जेक्शन लगवा लो। यह सुनकर रोगी ने वैद्य से कहा- 'मेरा शरीर बहुत कोमल है, इन्जेक्शन कैसे ले सकता हूं? कोई पीने की दवा दे दो।' वैद्य बोला- 'जैसी तुम्हारी मर्जी ! मैंने तो तुम्हे रोग से मुक्त होने का उपाय बताया है ।' रोगी ने इन्जेक्शन नही लिया और परिणाम यह हुआ कि उसका रोग भयङ्कर हो
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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