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________________ साठवां बोल-२६३ चेलना ने आश्चर्यपूर्ण स्वर से कहा-- ऐसा ? मगर जब तक मैं अपनी आखो न देख लू तब तक मान नहीं सकती । अगर यह बात सच होगी तो मैं उन्हे अपना गुरु नही मानगो । अपन तो सत्य के उपासक हैं । आप जैसा कहते हैं दिखलाइए । राजा-- मैं तो देख ही चुका हूं। अब बात बढाने से क्या लाभ है ? रानी--जब तक मैं अपनी आखो से देख न लू तब तक हर्गिज मानने को तैयार नही । अगर मैं ऐसा देखेंगी तो उसी घड़ी उन्हे साधु मानना छोड़ दू गी। आखिर राजा, चेलना रानी को साथ लेकर साधु के स्थान पर आया । दरवाजा खोला गया । दरवाजा खुलते ही वेश्या ऐसी भागी आई, मानो पीजरा खुलते ही पक्षी भागकर निकला हो ! आते ही उसने कहा- आप और कोई भी काम मुझ सौंप दें, मगर साधु के पास जाने का काम मुझे न बताइएगा । आज इन महात्मा के तपस्तेज में मैं भस्म ही हो गई होती, मगर उन्ही की दया से मेरे प्राण बच गए ! वेश्या की बात सुनकर रानी ने राजा से कहामहाराज ! यह वेश्या क्या कह रही है ? इसके कहने से तो मालूम होता है कि आपने ही इसे यहा भेजा था । भले ही आपने इसे भेजा हो मगर मैं तो पहले ही कह चुकी ह कि मेरे गुरु को इन्द्राणी भी नहीं डिगा सकती । पर यह जो कह रही है, उस पर विचार कीजिए। रानी की बात सुनकर राजा लज्जित हो गया ।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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