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साठवां बोल
दर्शनसम्पन्नता
पिछले बोल मे ज्ञानसम्पन्नता से होने वाले लाभ का विचार f या गया है । ज्ञान सम्पन्नता से जीवात्मा समस्त पदार्थों के यथार्थ भाव को जान सकता हैं और फलस्वरूप चतुर्गतिरूप समार अटवी में दुख नही पाता । जैसे डोरा वाली सुई गुमती नहीं, उसी प्रकार ज्ञानी जीव ससार की भूल-भूलया मे नही पडता और ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा विनय के योग प्राप्त करता है । इसी प्रकार अपने और दूसरो के सिद्धान्त को भलीभाति जानकर असत्य मार्ग मे फंसता नही है ।
भगवान् महावीर ने ज्ञानप्राप्ति का मार्ग बतलाया है । सच्चा ज्ञान, सम्यक्त्व अर्थात् सच्चे दर्शन के अभाव मे उत्पन्न नही होता । अतएव अब दर्शन के विषय मे प्रश्न किया जाता है ।
ज्ञान और दर्शन का परस्पर मे सहयोग है । जब ज्ञान होता है तो दर्शन भी होता है और जब दर्शन होता है तब ज्ञान भी होता है । प्रश्न किया जा सकता है कि यदि ज्ञान और दर्शन का सम्बन्ध इतना घनिष्ट है तो दर्शन