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________________ ___ २८२-सम्यक्त्वपराक्रम (२) अर्थात- संक्षेप में धर्म का सार सुनकर उसे जीवन __ मे उतारो । सब धर्मों का सार यही है कि जो कार्य तुम्हे अपने प्रतिकूल जान पडता हो, दूसरो के प्रति उसका प्राचरण मत करो। थीसूयगडांग सूत्र में भी ऐसा ही कहा.एवं खु नाणिगो सार, ज न हिंसइ फिचणं । अर्थात - ज्ञानीजनो के कथन का सार मात्र यही है कि तुम किसी की हिसा मत करो-किसी को सताओ नही । श्रीउत्तराध्ययसूत्र के छठे अध्ययन में सर्वभूत-समभाव रखने के लिए स्पष्टरूप से कहा है : अज्झत्थं सव्वनो सव्वं, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराश्री उवरए । (श्री उ० अ० ६ ) अर्थात--- अपने ही प्रात्मा की तरह सर्वत्र, सब प्राणियो को देखकर अर्थात् यह जानकर कि अन्य प्राणियो को भी अपने प्राण उसी प्रकार प्रिय हैं जैसे मुझे हैं, भय और वैर से निवृत्त हुआ आत्मा किसी भी प्राणी के प्राणो का हनन न करे । शास्त्र के इस सारगभित सूथ को स्पष्टरूप से समझाने के लिए एक व्यावहारिक उदाहरण देता हूँ. मान लो, कोई कर मनुष्य हाथ मे तलवार लेकर तुम्हें मारने के लिए तैयार हुआ है। इसी समय कोई दयालु मनुष्य माता है और वह उसे मारने से रोकता है । अब इन दोनो मे से तुम्हे फोन-मा मनुष्य अच्छा लगेगा ? इस
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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