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________________ '२७२-सम्यक्त्वपराक्रम (५) जाता है । महावीर भगवान् कहते हैं कि यथाख्यातचारित्र प्रकट होने से केवली अवस्था में विद्यमान रहने वाले चार कर्म - नाम, गोत्र वेदनीय और पायुकर्म - नष्ट हो जाते हैं। यह चारो क्म अघाति कर्म कहलाते हैं, क्योकि यह चारो आत्मा के गुणो का घात नही करते, वरन् मोक्ष-प्राप्ति में बाधा उपस्थित करते हैं। इन चारो कर्मों का नाश होने से आत्मा सिन्द्ध, बुद्ध, मुक्त होता है और परिनिर्वाण पाता है । काया का निरोध करने से आत्मा को क्या लाभ होता है, इस विपय का ऊपर थोडा-सा विचार किया गया है । काया का निरोध करने के सम्बन्ध में विशेष विचार करने से पहले यह विचार कर लेना यावश्यक है कि मन और वचन का निरोध कर लेने के बाद भी काया का निरोध करने की क्या आवश्यकता है ? तथा काया स्थूल है और चारित्र के पर्याय सूक्ष्म है । ऐसी स्थिति में स्थूल काया का निरोध करने पर भी सूक्ष्म चारित्रपर्याय किस प्रकार विशुद्ध हो सकते है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए भगवान् महावीर और गीतम स्वामी के बीच श्री भगवतीसूत्र से जो प्रश्नोत्तर हुए हैं, उनका उल्लेख कर देना सहायक होगा। गौतम स्वामी ने भगवान से प्रश्न किया---'प्राया भते । काया वा अन्ने भते ! काया?' अर्थात हे भगवन् ! अात्मा और काया एक ही हैं या अलग-अलग ? भगवान ने फरमाया---गोयमा ! आया वि काया अन्ने वि काया ।' अर्थात प्रात्मा और शरीर एक भी है और दोनो भिन्न-भिन्न भी है। जिस प्रकार दूध और घी एक भी हैं और जुदे-जुदे भी हैं. उसी प्रकार प्रात्मा और काया एक भी है और
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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