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________________ २६२ - सम्यक्त्वपराक्रम (५) आत्मा का कल्याण होता है । रथनेमि में पहले कितना अज्ञान था । अपने भाई अर्थात् भगवान् नेमिनाथ द्वारा त्यागी हुई राजीमती को अपनी पत्नी बनाने के लिए वह तैयार हो गया था । परन्तु राजीमती ने सदुपदेश द्वारा उसका अज्ञान दूर किया तब वह सयम मे प्रवृत्त हो गया, क्योकि उसने ज्ञान द्वारा वस्तु का स्वरूप समझ लिया था । इस प्रकार जब वस्तु का स्वरूप समझ में श्रा जाता है तो किसी प्रकार का भ्रम नही रहने पाता । भ्रम तो प्रज्ञान के कारण हो उत्पन्न होता है । वस्तु के प्रति जो मोहबुद्धि पाई जाती है वह भी अज्ञान के कारण ही होती है । ज्ञान उत्पन्न होते ही मोहबुद्धि भी नष्ट हो जाती है। मोहबुद्धि का जब नाश हो जाता है तव जड़-चेतन का विवेक उत्पन्न होता है । विवेक उत्पन्न हो जाने पर प्रतीत होने लगता है कि पुद्गल जड है, चल है और जगत् की जूठन है और चेतन अनन्त शक्तियो से सम्पन्न ज्योतिर्मय है। इस प्रकार विवेकज्ञान से सासारिक पदार्थों का वास्तविक स्वरूप समझ मे आ जाता है । वस्तु का वास्तविक स्वरूप मिथ्यात्व का नाश और सम्यक्त्व की विशुद्धि हुये बिना समझ मे नही आ सकता | अतएव आत्मकल्याण के लिए मन को समाधिस्थ करने की अत्यन्त आवश्यकता है। मन को सत्यमार्ग पर स्थापित किये बिना एकाग्रता नही आती और ज्ञानशक्ति उत्पन्न नहीं होती और ज्ञानशक्ति उत्पन्न न होने के कारण मिथ्यात्व का नाश नही होता तथा सम्यक्त्व की विशुद्धि नही होती। परिणामस्वरूप आत्मा का कल्याण भी नहीं हो सकता । संक्षेप में, आत्मकल्याण के लिए मन का निरोध करना आवश्यक है । मन का निरोध करना कठिन है, परन्तु भगवान् कहते
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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