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________________ तिरेपनवाँ बोल - २३६ अर्थात् - हे कृष्ण | मन बहुत चचल है । वह प्रमथन स्वभाव वाला है, दृढ है और बलवान् है । उसे वश मे करना मुझे तो वायु को वश मे करने के समान अत्यन्त दुष्कर जान पडता है । इस प्रकार मन की चंचलता दूर करने के संबन्ध मे अर्जुन को भी शंका हुई थी । दूसरे भक्त भी कहते हैं किहे प्रभो । मेरा मन ऐसा है कि जिन कामो के करने से हानि सहनी पडती है, उन्ही कामो मे बार-बार प्रवृत्त होता है । ऐसा मन किस प्रकार वश में किया जा सकता है ? । इस तरह मन को वश मे करना कठिन माना जाता है । परन्तु ज्ञानियो का कथन है कि यह कार्य जितना कठिन समझा जाता है, उतना कठिन नही है यह ठीक है कि मन चचल है मगर ऐसी बात नही है कि वह वश में हो ही न सके । यदि मन वश में किया हो न जा सकता हो तो शस्त्रकार ऐसा करने का उपदेश हो क्यो देते ? जो कार्य वास्तव मे अशक्य है उसे करने का उपदेश कौन देता है ? तिलो से तेल निकालने का उपदेश देना तो स्वाभाविक और उचित है कि तु बालू मे से तेल निकालने का उपदेश कोई नही देता । क्योकि ऐसा होना अशक्य है 1 मन वश मे तो किया जा सकता है परन्तु उसके लिये सक्रिय प्रयत्न करने की आवश्यकता है । इसीलिये यह उपदेश दिया जाता है कि मन को वश मे करने का प्रयत्न करो, पुरुषार्थ करो । जिन प्रयत्नो द्वारा मन वश में किया जा सकता है उन प्रयत्नो द्वारा उसे वश में करके अनेक पुरुषो ने मुक्ति प्राप्त की हैं, करते हैं और करेंगे । मन, वचन और काय को वश में करने के लिए ही
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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