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________________ बावनवां बोल-२३३ किस प्रकार कर सकते हैं ? केवली भगवान् जितना जानते हैं उतना वे भी कह नही सकते, क्योकि योग तो समयानुसार ही प्रवर्तित होता है। ऐसी स्थिति मे वे जितना जानते है, उस सब का वणन किस प्रकार कर सकते हैं ? हम लोग भी जितना देखते हैं उतना वर्णन नही कर सकते, तो फिर जो अखिल संसार को हाथ की रेखा की तरह देखते हैं, वे सब का कथन किस प्रकार कर सकते हैं ? इस प्रकार पूर्ण सत्य तो अनिर्वचनीय अकथनीय है । पूर्ण सत्य की परिसीमा पर पहुचने से मन और वाणी भी उसी मे समा जाते है । अतएव पूण सत्य अनिर्वचनीय है । यहा जिस सत्य का कथन किया गया है वह तो व्यावहारिक सत्य है। जो वास्तविकता से विरुद्ध नही है और जिसके विषय में किसी प्रकार का कपट सेवन नही किया गया है, वह व्यावहारिक सत्य है । इस सत्य के साथ योग का सबन्ध जोडना योगसत्य है । इम योगसत्य से जीवात्मा को क्या लाभ होता है, यह प्रश्न गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा है । इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा है-योगसत्य से योग की विशुद्धि होती है। योगसत्य और योग-प्रसत्य में क्या अन्तर है ? यह बात एक व्यावहारिक उदाहरण देकर समझाता हू । मान लीजिये एक सेठ के पास कोई प्रादमी दम रु० उधार लेने आया । सेठ के पास तिजोरी में रुपया है मगर वह उस आदमी को देना नही चाहता और न यही चाहता है कि मागने वाले को बुरा लगे । प्रतएव सेठ मागने वाले से कहता है-" मैं तुम्हे रुपया अवश्य देता, मगर अभी शिलक में रुपया न होने के कारण असमर्थ हू।" ऐसा कहने वाले
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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