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________________ २१२-सम्यक्त्वपराक्रम (५) सकती । जव तक हृदय में से वैरवृत्ति नही निकल जाती तब तक अशाति नहीं मिट सकती । अगाति को दूर करना आवश्यक है । दूसरो को शाति पहुंचाने से ही शाति उत्पन्न हो सकती है । वर का बदला वैर से लेने से तो वैर ही बढता है । अतएव वैरवृत्ति का विनाश करने के लिए तथा विश्व मे शाति की स्थापना के लिए कषायात्मा को जीतना अनिवार्य है । जो प्रात्मा मैत्रीपूर्ण प्राचार और विवेकपूर्ण विचार द्वारा कपाय को जीतने का प्रयत्न करता है, वह कपाय को जीत सकता है और विश्व मे शाति भी स्थापित कर सकता है। प्रश्न हो सकता है कि किस प्रकार जाना जा सकता है कि हमने कपाय को जीत लिया है ? इस प्रश्न का सामान्य उत्तर यही दिया जा सकता है कि अपने व्यवहार से ही पता लग सकता है कि वास्तव मे हमने कषाय को जीत लिया है या नहीं। आचार और विचार के एकीकरण से ही इण्ट कार्य की सिद्धि होती है । निश्चय और व्यवहार मे आचार तथा विचार एक ही होना चाहिए । महापुरुषो की मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृति एक ही प्रकार की होती है। . मनस्येक वचस्येक कार्येचैक महात्मनाम् । अर्थात महात्माओ के मन मे, वचन मे तथा कार्यों मे एक ही सरीग्वी प्रवृत्ति होती है । जो व्यक्ति क्रोध, मान, माया और लोभ को जीत लेता है, उस व्यक्ति का व्यवहार सरल बन जाता है निश्चय मे जो कपाय-विजयी होता है वह व्यवहार मे भी
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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