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________________ पचासवां बोल-२०५ इस प्रकार का आध्यात्मिक सत्य (भावसत्य) अपनाने से ही आत्मा का कल्याण हो सकता है। भावसत्य को अपनाये बिना नौ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने वाले ज्ञानी भी आत्मकल्याण साधे बिना ही रह जाते हैं । ऐसे ज्ञानीजनो के उपदेश से धर्मोन्मुख हुए लोग तो मोक्ष पा लेते हैं परन्तु भावसत्य न अपनाने के कारण वे ज्ञानी जैसे के तैसे ही रह जाते हैं। इससे भावसत्य को महिमा समझ मे आ सकती है। भावसत्य को अपनाने से जीव को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा-भावसत्य द्वारा भाव की बिशुद्धि होती है अर्थात् चित्त की शुद्धि होती है। भावविशुद्धि द्वारा जीवात्मा अर्हन्त-प्ररूपित धर्म की आराघना कर सकता है । जो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है वह अर्हन्त भगवान् है । अर्हन्त भगवान् द्वारा जिस धर्म की प्ररूपणा की गई है वह धर्म अर्हन्त प्ररूपित धर्म कहलाता है। जब भावसत्य द्वारा भावशुद्धि होती है, तभी अहन्त प्ररूपित धर्म की आराधना हो सकती है। चित्त की शुद्धि हो धर्माराधना का मार्ग है । श्रावक-श्राविका जो धर्मकार्य करते हैं, उसका उद्देश्य चित्त की शुद्धि करना ही है। अतएव धर्म की धाराधना करने के लिए चित्तशुद्धि करना आवश्यक है । जो बात, हम जान या देख नही सकते, भगवान् उसे भी जानते हैं । अगर कपटपूर्वक सत्य बोला जाये तो भगवान् की दृष्टि मे ऐसा सत्य भी असत्य ही है । इससे विपरीत कपटरहित सरल भाव से बोला गया असत्य भी सरल आत्मा की दृष्टि से सत्य ही है । कहने का आशय यह है कि जीवन मे भावसत्य को अपनाने से ही चित्त की शुद्धि होती है और चित्त की शुद्धि
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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