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अड़तालीसवां बोल-१७६
विपरीत हृदय मे जव कपट भाव होता है तो काया में भी कुटिलता आ जाती है, भावो मे भी वक्रता आ जाती है और भाषा मे भी कपटीपन आ जाता है । ।
हृदय मे व पट का भाव आने से शरीर मे किम प्रकार वक्रता आ जाती है; यह वात नाटक के उदाहरण से स्पष्ट समझ में आ सकती है । नाटक मे अनेक प्रकार के जो पात्र होते हैं, वे वास्तव मे कैसे होते हैं और नाटक मे शरीर का रूप कैसा बना लेते हैं ? उनके हृदय मे तो मलोनता' होती है मगर कार से सरलता प्रकट करते हैं । 'हाथी के दात दिखाने के और तथा खाने के और' इस लोकोक्ति के अनुसार उनके हृदय का व्यवहार तथा काया का व्यवहार जुदा-जुदा होता है ।
राम या हरिश्चन्द्र का नाटक खेला जाता है । राम या हरिश्चन्द्र का अभिनय करने वाले मे उन जैसा त्यागभाव नहीं होता, फिर भी कपट-पूर्वक राम या हरिश्चन्द्र का वेषधारण करके अभिनेता खेल दिखलाता है। इसमे कपट नही तो क्या है ?
कहने का आशय यह है कि हृदय मे कपटभाव रखने से काया मे भी वक्रता आ ही जाती है और जब हृदय मे सरलता पाती है तो काय में भी सरलता आ जाती है । इसके अतिरिक्त काय की वक्रता और सरलता से हृदय की वक्रता और सरलता जानी जा सकती है। अगर भावों में कपट हो तो काय में वक्रता पाए बिना नहीं रहेगी । अर्थात् भाव मे कपट होगा तो काय मे वक्रता आएगी और काय मे वक्रता होगी तो भावों में भी वक्रता होगी । इस प्रकार भाव मे सरलता होगी तो काय मे भी सरलता होगी और काय