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________________ छयालीसवां बोल-१४५ - उपयुक्त परिषहों मे क्षुधा का परिषह सब से पहला है। भूख के दुःख को सम्यक् प्रकार से सहन करना क्षुधा परिषह है । ससार मे भूख के दुःख से व्याकुल होकर लोग ऐसी चीज भी खा लेते हैं, जिसके देखने मात्र से दूसरो को घृणा उत्पन्न होती है । क्षुधा का दुख न सह सकने के कारण ही लोग अपने प्राणप्रिय बालक को भी मार कर खा जाते हैं, ऐसा सुना जाता है । इस प्रकार क्षुधा का परिषह "सब से विकट है । महान तपस्वी तथा क्षमाशील पुरुष ही क्षुधा परिषह को समतापूर्वक सहन कर सकते है। क्षुधा परिपहं को जीतने के लिए शास्त्रकार खाने की मनाई नही करते । खाने की मनाई करने का फलितार्थ होगा मरने के लिए कहना । क्योकि जो भोजन करता ही नही अथवा जिसने भोजन का त्याग किया है, वह भूखा कितने दिन रहेगा ? किसी अवधि के बाद तो उसे मरण-शरण होना ही पडेगा । इसलिए शास्त्रकार यह नही कहते कि 'तुम खाओ ही नही' अथवा 'भोजन का सर्वथा त्याग कर दो।' शास्त्रकार यह कहते हैं कि क्षुधा को जीतो और क्षमा द्वारा क्षुधा परिषह पर विजय प्राप्त करो और यह समझो कि 'मैं जो कुछ खाता हूँ सो इस शरीर रूपी गाडी को चलाने के लिए ही खाता है। जैसे गाडी चलाने के लिए पहिये के चक्र में तेल लगाया जाता है, उसी प्रकार मैं इस शरीर रूपी गाडी को चलाने के लिए उदर रूपी चक्र मे भोजन रूपी तेल लगाता हू। ऐसा विचार करके इतना ही परिमित भोजन करना चाहिए जिससे शरीर-चक्र बराबर काम देता रहे । मुनिजन किस उद्देश्य से भोजन करते हैं, यह बात बताने के लिये शास्त्र में एक छोटा-सा दृष्टान्त दिया गया
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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