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________________ १२६-सम्यक्त्वपराक्रम (४) तो दूसरी, चीज को उपावि का है। इसी प्रकार ज्ञानावर. णीय कर्म का क्षयोपशम होने पर भी मिथ्यात्व के उदय के कारण सुलटी वस्तु भी उलटी जान पडती है और इसी कारण वह ज्ञान भी मिथ्याज्ञान कहलाता है । श्रुतमान मे सुनने की शक्ति है और मतिज्ञान में मनन करने की शक्ति है। इसी कथन पर यह प्रश्न क्यिा जा सकता है कि शास्त्र मे सभी ससारी जोवो को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का होना कहा है, किन्तु जिन जोवो के श्रोत्रेन्द्रिय नही है, वे किस प्रकार सुन सकते हैं ? इस कथन का उत्तर यह है कि शास्त्र मे दो प्रकार की इन्द्रिय कही गई है-~-(१) द्रव्येन्द्रिय और (२) भावेन्द्रिय । यह दोनो प्रकार की इन्द्रिया सभी जीवो को होती है । ससार मे एक भी ऐसा जीव नही है जिसे द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय सर्वथा न हो । अतएव यहा इन्द्रियजन्य ज्ञान के विषय मे जो कथन किया गया है वह भावेन्द्रिय जनित ज्ञान समझना चाहिए । केवलज्ञान स्थापना रूप है और श्रुतज्ञान सांव्यवहारिक है । हम लोगो को श्रुतज्ञान से ही लाभ होता है । केवलज्ञानी सभी कुछ जान-देख लेते हैं, परन्तु वे जो कुछ देखते है, वह उपदेश मे तो श्रुतज्ञान के रूप में ही परिणत होता है । और ऐसा होने के कारण ही केवलज्ञानी का दशन और ज्ञान दूसरो के लिए लाभकारी हो सकता है । इस प्रकार शेष चार ज्ञान श्रुतज्ञान के आश्रित हैं, अतः हमे श्रुतज्ञान प्राप्त करना चाहिए । यहा एक प्रश्न चर्चा का उत्पन्न होता है । वह यह है कि ज्ञान तो उत्तरोत्तर बढता जाता है और बुद्धि विकसित होती जाती है, अतएव ज्ञान बढने से पहले जो कुछ भी
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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