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________________ तेतालीसवां बोल-११३ स्वी की सेवा (५) शिष्य की सेवा (६) ग्लान-रोगी की सेवा (७) गण की सेवा (८) कुल की सेवा (8) सघ की सेवा और (१०) सहधर्मी की सेवा । यह दस प्रकार की सेवा बतलाई गई है। इनमें से आचार्य की सेवा करने से क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न के उत्तर मे कहा गया है कि आचार्य की सेवा करने से प्रतिक्षण अनन्त कर्मों का क्षय होता है और अन्त मे मोक्ष प्राप्त होता है । इसी प्रकार प्रत्येक सेवा के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं । यहा गौतम स्वामी ने समुच्चय रूप में वैयावृत्य अर्थात् सेवा के फल के विषय में प्रश्न किया है। इस प्रश्न के उत्तर मे फरमाया है कि सेवा करने वाला तीर्थङ्कर गोत्र का उपार्जन करता है । जैनशास्त्रो मे तीर्थङ्कर पद से बड़ा अन्य कोई पद नहीं माना गया है । यह पद किसी अन्य पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त हो सकता है, ऐसा कथन इन ७३ बोलो मे कही भी मेरे देखने मे नही प्राया । यह महान् फल वैयावृत्य-सेवा करने से प्राप्त होता है, ऐसा बतलाया गया है । भगवान् ने सेवा का फल इतना उत्तम और महान बतलाया है । जिस सेवा से ऐसा महान् फल प्राप्त होता है, वही सेवा करने मे झूठकपट का व्यवहार करना कितनी मूर्खता है । सेवा में जो छल-कपट करता है वह गुलामी की सेवा करता है, ऐसा समझना चाहिए । जो पुरुष किसी भी प्रकार की सेवा को परमात्मा की सेवा मानकर करता है, वह सेवा करने में छल-कपट का व्यवहार कर ही नहीं सकता। सेवा अनेक प्रकार से होती है । न थो में कहा है कि
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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