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________________ बयालीसवां बोल-१०६ हैं । वेषधारी अल्प ही उपधि रख सकता है और इस प्रकार वह अधिक सामान संभालने से बच जाता है । साधुवेष जीव को जितेन्द्रिय बनने का मूक सदेश सुनाता है । इस प्रकार साघुवेष विपुल तप-सयम आदि सदगुणो की प्राप्ति कराता है तथा सद्गुणो का सरक्षण करने मे भी साधक बनता है। सुविहित साघवेष से उत्पन्न होने वाले अनेक गुणो मे से प्रत्येक गुण पर विचार करने के लिए बहुत समय की आवश्यकता है । अतएव समुच्चय रूप मे यहा इतना ही कह देना पर्याप्त है कि सुविहित साघुवेष धारण करके उसको प्रतिष्ठा बढाते तथा रक्षा करते हैं, वे अपना और पर का कल्याण करते हैं। स्थविर वेष धारण करना तो परमात्मा के दरबार मे बैठक प्राप्त करने का प्रयत्न करने के समान है । दरबार मे बैठने वाले लोगो को भी वेष के विषय मे सावधानी रखनी पडती है, तो फिर क्या परमात्मा के दरबार मे बैठने के लिए वेष की सावधानी नही रखनी चाहिए ? अवश्य रखनी चाहिए। साधुवेष स्वीकार करके प्रत्येक साधु को इस बात का विचार करना चाहिए कि महान चक्रवर्ती भी अपनी ऋद्धिसम्पदा का त्याग करके जिस वेष को धारण करते हैं वही चेष मुझे भी प्राप्त हुआ है । अतएव मुझे इस वेष के विरुद्ध या इसे कलक लगाने वाला कोई काम नही करना चाहिए। साधुवेष को प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने का भार हमारे ऊपर भी है और तुम्हारे ऊपर भी है, क्योकि तुम (श्रावक) भी चतुर्विध तीर्थ मे से एक हो । शास्त्र मे कहा है:
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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