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________________ चयालीसा बोल-१०७ श्री श्रीलालजी महाराज कहते थे कि शास्त्र तो जैन साधु का सिंगार है। प्रशस्त लिग धारण करने से आत्मा मे विशुद्धता आती है और वह विशुद्धता बढ़ती जाती है । प्रशस्त साधुलिंग से सम्यक्त्व आदि गुणो की वृद्धि होती है और इन गुणो मे आत्मा स्थिर होता है । सुविहित वेष वही साधु धारण कर सकता है, जिसमे सम्यक्त्व आदि गुण होते हैं। साधुवेष मे इन गुणो की रक्षा और वृद्धि होती है । स्थविरकल्पी का वेष धारण करने से दूसरा लाभ क्या होता है, यह बतलाते हुए भगवान ने कहा कि आपत्ति. काल मे साधुवेष अध्यवसाय को निश्चल रखता है। आपत्तिकाल में साधुवेष से अध्यवसाय मे किस प्रकार निश्चलता रहती है, इस विषय पर विचार करते हुए मेरा स्वानुभव यहा स्मरण मे आ जाता है: घोडनदी मे एक श्राविका सामायिक में बैठी थी। सामायिक के समय उसे बिच्छू ने डक मार दिया । बिच्छू के डक मारने पर भी वह श्राविका तब तक चुप-चाप बैठी रही जब तफ सामायिक पूर्ण न हो गई । सामायिक पूर्ण होते ही वह चीख मार कर रोने लगो । लोगो ने रोने का कारण पूछा तो श्राविका ने कहा मुझे बिच्छू ने काट लिया है, और उसकी अस ह्य पीडा के कारण रोये बिना नहीं रहा जाता।' यह सुनकर लोगो ने कहा- 'जय बिच्छू ने डक मारा था तव तुम चुप कैसे बैठी रही?" . प्राविका बोली-'उस समय मैं सामायिक में थी । सामायिक मे कैसे रो सकती हूं।'
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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