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________________ अट्टाईसवां वोल-६१ stic दु सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर शान्त बनता है और सब दु खो का अन्त करता है । सिद्ध, वुद्ध और मुक्त होने के लिए जीवात्मा को सर्वप्रथम स्थिरात्मा बनने का आवश्यकता है। स्थिर हुए बिना आत्मा को शाति नहो मिल सकती । वास्तव मे आत्मा स्वभाव से तो स्थिर हो है, परन्तु कर्मरूपी अग्नि की प्रेरणा से वह अस्थिर बन गया है । कभी उच्च कर्मों का उदय होता है तो कभी-कभी नीच कर्मो का । अर्थात कभी पुण्य का और कभी पाप का उदय हाता रहता है । इसी कारण आत्मा अस्थिर बन जाता है । आत्मा को अस्थिर और अशात बनाना कर्मों का मुख्य काम है । पुण्य और पाप दानो कर्मों के ही विकार (फल) हैं । पुण्य, कर्मो का शुभ परिणाम है और पाप, अशुभ कर्मों का परिणाम है । इस प्रकार पुण्य-पाप दोनो कर्मों की ही संतान हैं । इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि अत्मा को पुण्य और पाप रूप दोनो प्रकार के कर्मों से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए । पानी मे चाहे शक्कर डाली जाये, चाहे कोई कटक चीज डालों जाये, पानी तो दोनो के डालने से विकृत होगा ही। यह बात दूसरी है कि शक्कर डालने से पानी मे जो विकृति आती है वह शुभ विकृति है और कटक चीज के सयोग से होने वाली विकृति अशुभ है । परन्तु यह दोनो वस्तुए विकार-जनक होने के कारण उनसे पानी तो अशुद्ध हआ ही । पानी मे जब बाहर की कोई भी वस्तु न मिलाई जाये, तभी पानी का मूल स्वरूप देखा जा सकता है। इसी प्रकार पुण्यकर्म शुभ दशा है और पापकर्म अशुभ दशा है ।
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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