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इक्कीसवाँ बोल-३
है, यह कहना कुछ कठिन है। मगर यह सरलतापूर्वक कहा जा सकता है कि हृदय को आख बन्द रखने वाला मूर्ख कहलाता है और जो हृदय-चक्षु को खुला रखता है वह महादेव हो जाता है । हृदय की आख खुली होने पर भी अगर खराब काम किये जाएँ तो कैसा कहा जा सकता है कि इसकी हृदय की आख खुली है ? वह तो मानो देखते हुए भी अधा है । हाँ जो हृदय की आख खुली रखकर सत्कार्य मे प्रवृत्ति करता है वह शिव' अर्थात् कल्याणकारी बन जाता है ।
भगवान् का कथन है कि सूत्र- सिद्धान्त की परावर्तना या आवत्ति करने से विस्मृत व्यजनो का स्मरण हो जाता है। यही नही वरन् व्यजन की लब्धि भी उत्पन्न होती है। अक्षरो के मिलने से शब्द बनता है और शब्दो के मेल से वाक्य बनता है । सूत्र-सिद्धान्त को आवत्ति करते रहने से ऐसी पदानुसारिणी लब्धि प्राप्त होती है कि जिससे एक अक्षर बोलने से पूरा शब्द और एक शब्द बोलने से पूरा वाक्य तथा एक वाक्य बोलने से दूसरा वाक्य बन सकता है या जाना जा सकता है । अर्थात् एक पद सुनने से दूसरा पद बनाने की शक्ति आ जाती है । इस प्रकार की शक्ति पदानुसारिणी लब्धि से ही प्राप्त हो सकती है और यह लब्धि सूत्र-सिद्धान्त की आवृति करते रहने से उत्पन्न होती है ।
आवृत्ति न करने से किस प्रकार की हानि होती है? इस विषय मे बचपन मे सुनी हुई एक कहावत याद आ जाती है । इस कहावत मे गुरु, शिष्य से पूछता है--