SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ - सम्यक्त्वपराक्रम (३) है, वही तप श्रेष्ठ है । मन, वचन और काय की शुद्धि करने वाला तप ही वास्तविक तप है । कितनेक तपस्वी अधिक क्रोधी होते है । मगर जो प्रचण्ड क्रोध करता है, कहा जा सकता है कि उसमें अभी तक तप नही है । तप मे क्रोध को स्थान नहीं हो सकता । जिस तप मे क्रोध को स्थान नही है, वही तप वास्तविक है । जैनशास्त्र अनशन तप को महत्वपूर्ण स्थान देता है । महाभारत मे भी अनशन तप की श्रेष्ठता स्वीकार की गई है । कहा है तपो न अनशनात् परम् । अर्थात् - अनशन से श्रेष्ठ और कोई तप नही है । तप आत्मा को सब पापो से अलग रखता है । जो तप करता है वह अहिंसा का भी पालन करता है, सत्य का भी पालन करता है, अदत्तादानत्याग का भी पालन करता है और वही ब्रह्मचर्य आदि का भी पालन करता है। ब्रह्मचर्य पालने के लिए मानसिक वृत्तियो को वश करने की आवश्यकता है मन की वृतियाँ अन्य उपायो से कदाचित् वश में न भी हो, परन्तु अनशन तप से अवश्य वा मे हो जाती है। गीता मे कहा है विषया विनिवर्त्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्ण्य रसोऽप्यस्य पर दृष्ट्वा निवर्त्तते ॥ अर्थात् -- अनशन करने से विषय की वासना ही नष्ट हो जाती है और वासना के नष्ट हो जाने पर अब्रह्मचर्य या अन्य पापो की भावना ही किस प्रकार टिकी रह सकती है ।
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy