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________________ ७२-सम्यक्त्वपराक्रम (३) शरीर भी विगडता है । अधिक भोजन करने के लिए लोग तरह तरह की तरकारिया, आचार, चटनी, मुरव्वा वगैरह बनाते है। पहले के लोग चौदह नियमो का चिन्तन इसलिए करते थे और इसीलिए द्रव्यो की मर्यादा करते थे कि परिमाण से अधिक न खाया जाये । अधिक न खाने से अर्थात् कम खाने से ऊनोदरी तप भी हो जाता है और शरीर भी स्वस्थ रहता है। तीसग तप वत्तिसक्षेप है यह तप प्रधानत साधुओ के लिए है, मगर श्रावक यह न सोचे कि यह हमारे लिए नहीं है । साधुओ की वृत्ति भिक्षा है, थावको की वृत्ति भिक्षा नही है । जो थावक पडिमाधारी या ससारत्यागी नही है वह भिक्षा नही माग सकता। इसी प्रकार सानो के लिए भी कहा गया है कि अगर तुम भलीभाति सयम का पालन कर सकते हो तो तुम्हारी भिक्षावृत्ति है, अन्यथा पौरपघ्नी भिक्षा है । जिससे सयम का पालन नही होता वह याचना भी नहीं कर सकता । प्रत्येक मनुष्य को अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहना चहिए । अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहने वाले को सकट का सामना नही करना पडता । दृढप्रतिज पुरुष को अनायास ही कही न कही में सहायता मिल जाती है । नेपोलियन बोनापार्ट के विषय में सुना जाता है कि उसकी माता ने उससे कहा - अमुक कार्य के लिए मुझे इतने वन की आवश्यकता है । नेपोलियन अपनी माता का बहुत आदर करता था मगर उसके पास माता को सतुष्ट करने योग्य धन नही था । उसने सोचा ~माता की आज्ञा
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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