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________________ छब्बीसवाँ बोल-५७ मालिक की आज्ञा बिना कोई भी वस्तु ग्रहण न करना, ससार की सम-त स्त्रियो को माना-बहिन के समान समझना और भगवान की आज्ञा के अनुसार ही धर्मोपकरण रखने के सिवाय कोई परिग्रह न रखना, इस प्रकार पाच आस्रवो से निवृत्त होना और पाच महाव्रतो का पालन करना और पाच इन्द्रियो का दमन करना । पाँच इन्द्रियो को दमन __ करने का अर्थ यह नही है कि आख वन्द कर लेना या कान मे शव्द ही न पडने देना । ऐसा करना इन्द्रियो का निरोप नही है । बल्कि इन्द्रियो को विषयो की ओर जाने ही न देना इन्द्रियनिरोव कहलाता है । प्रत्येक इन्द्रिय का उपयोग करते समय ज्ञानदष्टि से विचार कर लिया जाये तो अनेक अनर्थो से बचा जा सकता है । जब तुम्हारे कान में कोई शब्द पडता है तो तुम्हे सोचना च हिए - मेरा कान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, वगैरह प्राप्त करने का साधन है । अत एव मेरे कान मे जो शब्द पडे हैं वे मेरा अज्ञान वढाने वाले न हो जाए, यह बात मुझे खयाल मे रखनी चाहिए । जब तुम्हारे कान मे टुक शब्द टकर ते हैं तब तुम्हारा हृदय काँप उठता है। मगर उस समय ऐसा विचार कर निश्चल रहना चाहिए कि यह तो मेरे धर्म की कसौटी है । यह कटु शब्द शिक्षा देते हैं कि समभाव धारण करने से ही धर्म की रक्षा होगी । अतएव कटुक शब्दो को धर्म पर स्थिर करने में सहायक मानकर समभाव सीखना चाहिए । इसी प्रकार कोई मनुष्य तुम्हे लम्पट या ठग कहे तो तुम्हे सोचना चाहिए कि मैं एकेन्द्रिय होता तो क्या मुझे यह
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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