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________________ ४४-सम्यक्त्वपराक्रम (३) का फल बतलाते हुए एक संग्रहगाथा में कहा गया है-- जह जस सुयमवगाहइ अइसयरससजुयमपुव्वं । तह तह पल्हाइ मुणी नव नत्र सवेगसद्धाए । । अर्थात् - मुनि ज्यो-ज्यो श्रुत मे अवगाहन करता जाता है, त्यो-त्यो उस मुनि को सकेग श्रद्वा मे अपूक अपूर्व आह्लाद प्राप्त होता है । श्रृत की सूत्र मे, अर्थ से सूनार्थ से ज्यो ज्यो आराधना की जाती है त्यो त्यो अपूर्व भावो को उत्पत्ति होती है । श्री भगवतीसूत्र का अनेक महात्माओ ने अनेक बार अध्ययन किया पर अन्त मे उन्हें यही कहना पडा कि-'हे भगवती । मैं तुझमे ज्यो-ज्यो अवगाहन करता हूँ, त्यो-त्यों मुझे अपूर्व ही भाव मालूम होता है, इसलिए मैं तुझे नमस्कार करता हूं।' श्रत की आराधना करने से नवीन नवीन' भाव किस प्रकार प्रकट होता है; यह बात यो समझो । मान लो, तुम किसी समुद्र के किनारे फिरने गये हो । समुद्र के किनारे ठडी हवा बह रही है । तुम समुद्र के जितने नजदीक जाओगे, उतनी ही अधिक ठडी हवा मालूम होगी। अगर समुद्र मे स्नान करने के लिए घुमोगे तो और भी अधिक ठड लगेगी। कदाचित तुमने समुद्र में गहरा गोता लगाया तो वह गहरा मालूम होगा, अधिक ठड भी मालूम होगी पर सभव है समुद्र की गहराई मे से तुम्हे किसी वस्तु की प्राप्ति भी हो जाय । मोती तो गहरे पानी में डुबकी मारने से ही मिलते हैं । इसी प्रकार जो पुरुष सूत्ररूपी समुद्र के जितना सन्निकट जाएगा, उसे उतना ही अधिक लाभ होगा।
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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