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________________ २४२-सम्यक्त्वपराक्रम (३) यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्यानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ अर्थात् - जब धर्म का अपमान होता है और अधर्म का साम्राज्य फैलता है, तब महापुरुष का जन्म होता है। वह महापुरुष धर्म की रक्षा करता है । मनुस्मृति में कहा है'धर्मो रक्षति रक्षित' अर्थात् जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, धर्म उस व्यक्ति की रक्षा करता है। अत. धर्म पर पूर्ण श्रद्धा रखकर उसका पालन करो और परमात्मा का स्मरण करने मे मन को तल्लीन कर दो। इसी मे स्व-पर का कल्याण है। गौतम स्वामी के इस प्रश्न से कि उपधि का त्याग करने से जीव को क्या लाभ होता है, यह तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि उपधि रखने में लाभ नहीं वरन् उपधि का त्याग करने में ही लाभ है । इसलिए शात्र में भी कहा गया है : उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे । मायामज्जवभावेणं लोहं सतोसम्रो जिणे। अर्थात्-- उपशम-क्षमा द्वारा क्रोध का नाश करो, मृदुता से मान को जीतो, आर्जव से माया को जीतो और सतोप मे लोभ को जीतो।। क्रोध आदि को प्रात्मा का शत्र माना जाये तो ही उन्हे जीता या नष्ट किया जा सकता है। क्रोध तो साक्षात् शत्रु है ही, अहकार भी आत्मा का शत्रु ही है । अतएव क्षमा के द्वारा क्रोध को और नम्रता के द्वारा अहकार को जीत लेना चाहिए । जव आम के पेड मे फल लगते है तो वह नम जाता है, मगर एरण्ड नही नमता । अब विचार
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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