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________________ चौतीसवा बोल-२१५ कारों ने जगत के जीवों की सुविधा के लिए स्थूल हिंसा की व्याख्या करते हुए कहा है- जो जीव चलते-फिरते दिखाई देते हैं, उनका घात करना स्थूल हिंसा है । गृहस्थश्रावक को ऐसे जीवो की हिंसा नही करना चाहिए । जीव तो पृथ्वी, पानी आदि में भी है, परन्तु वे प्रत्यक्ष दिखाई नही देते और गृहस्थ-श्रावक उन जीवो की हिंसा से बच नही सकता। अतएव जो जीव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उनकी हिंसा श्रावक को नही करना चाहिए । __इस पर कोई गृहस्थ कह सकता है कि अगर हम ऐसी हिंसा से बचते ही रहे और अहिंसक बनकर बैठे रहें तो हमारा संसार-व्यवहार ही न चले । इसका समाधान यह है कि यह खयाल ही गलत है । एक बार एक डाक्टर साहब ने भी मुझसे ऐसा ही कहा था । उनका कहना था'अगर हम अहिंसक ही बन जाएँ तो ऐसी दशा मे अनेक मनुष्य मर जाएँ ।' मनुप्यो की रक्षा के लिए हमे हिंसा करनी ही पड़ती है। रोग के कीटाण, जो रोगी के शरीर मे होते हैं, उनका हमे विनाश करना पडता है । अगर कीटाणु नष्ट न किये जाएँ तो रोगी जीवत नही रह सकता और कीटाणुओं का नाश करने से हिंसा होती है । ऐसी दशा में हमें क्या करना चाहिए और किस प्रकार अहिंसा का पालन करना चाहिए ? डाक्टर का कर्तव्य निभाने के लिए हमें दवा से, इन्जेक्शन से या आपरेशन से कीटाणुरो का नाश करना ही पड़ता है।' डाक्टर की तरह और लोग भी कहने लगते हैं- वास्तव मे कीडो को बचाना चाहिए या मनुष्यो को बचाना चाहिए?'
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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