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________________ तेतीसवां बोल-१८७ मान लीजिए, कोई आदमी अपनी थाली में कन्दमूल लेकर भोजन करने बैठा है और तुम कन्दमूल के त्यागी होने के कारण अलग थाली मे भोजन करने वैठे हो । अब वह अ दमी तुमसे वहता है 'मेरे साथ ही भोजन करने बैठो।' तुमने उत्तर दिया- ' मैं का दमूल का त्यागी हू, अतएव तुम्हारे साथ एक ही थाली मे भोजन करने कैसे बैठ सकता हूँ? अगर तुम अपनी थाली मे से कन्दमूल हटा दो तो मैं तुम्हारे साथ जीमने वठ सकता हू ' तव वह आदमी कहता है'मैं अपनी थाली में से कन्दमूल नही हटा सकता? ऐसी स्थिति मे तुम उसे क्या उत्तर दोगे ? तुम यही कहोगे कि अगर तुम्हे ऐसा ही करना है तो हम लोग अलग-अलग ही जीमने बैठे यही ठीक है । इस प्रकार जव तुम अलग जीमने बैठे तो वह कहता है- 'तुम अलग बैठकर आपस मे फूट फैलाते हो।' इस कथन का उत्तर यही दिया जा सकता है कि-- कुछ भी हो, केवल तुम्हे मनाने के लिए मैं अपने नियमो का उल्लघन नही कर सकता । इस प्रकार यदि तुम भी अपने नियम का पालन करने के लिए असमान आहार-विहार करने वाले के साथ भोजन करने नही बैठ सकते, तो फिर साधुता के नियमो का ठीक तरह पालन न करने वाले साधुओ के साथ हम सभोग कैसे चालू रख सकते हैं ? कोई मोती असली और कोई नकली होता है। तो क्या असली और नकली मोती को एक सरीखा माना जा सकता है ? क्या असली और नकली मोती को एक ही हार मे पिरोया जाना उचित है ? अगर नही, तो फिर साधुओं के विषय मे भी यही समझ लेना चाहिए । निश्चय मे तो कौन मोक्ष प्राप्त करेगा, यह नही कहा जा
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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