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________________ बत्तीसवां बोल - १७७ होइ उवेहाए । अर्थात् - मन मे ममता हो फिर मुख से कदाचित् विषम शब्द भी निकल जाये तो वह भी सत्य ही है, क्योंकि बोलने वाले का आशय खराब नही है । शास्त्र के इस कथन से यह बात स्पष्ट समझी जा सकती है कि खराब आशय और विषयवासना रखे बिना जो कुछ बोला जाता है वह भी सत्य है । जो इस प्रकार सत्य वचन बोलता है और असत्य का त्याग करता है वह किसी दिन पूर्ण सत्य को भी प्राप्त कर सकता है । जैसे रेखागणित मे मध्यरेखा की कल्पना की जाती है, उसी प्रकार हमारे लिए पूर्ण सत्य तो कल्पना के समान प्रतीत होता है । किन्तु जैसे रेखागणित मे मध्यरेखा की लम्बाई-चौडाई न होने पर भी मानी जाती है- माननी पडती है, उसी प्रकार सत्य मे भी पूर्ण सत्य का आदर्श मानना आवश्यक है । कहने का आशय यह है कि असत्य का पाप भी विषयलालसा से ही उत्पन्न होता है । तीसरा पाप चोरी का है। चोरी का पाप भी विषयलोलुप मनुष्य ही करता है । जिसने विषयवासना पर विजय प्राप्त कर ली है वह चोरी नही करेगा । अर्थात् विषयविजयी पुरुष चोरी का पाप नही करता । चोरी मे केवल दूसरो की चीजो को बिना अधिकार लेने का ही समावेश नही होता परन्तु अपना या दूसरो का विकास रोकना भी चोरी ही है । तुम श्रावक हो - गृहस्थ हो, अतएव तुम पूरी तरह चोरी से निवृत्त नही हो सकते अतएव तुम्हे स्थूल चोरी से निवृत्त होने के लिए कहा गया है । अर्थात् तुम्हारे
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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