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________________ १६२-सम्यक्त्वपराक्रम (३) श्यकता पड़ती है। लोगो से पूछा जाये तो वे यही कहेगे कि हम जीने के लिए खाते है। मगर उनकी परीक्षा की जाये तो जीने के लिए खाने वाले बहुत कम निकलेगे । अगर तुम जीने के लिए ही खाते हो तो क्या भोजन करते समय अपने डाक्टर वनकर क्या इस बात का विवेक रखते हो कि कौनसी वस्तु भक्ष्य और कौन-सी अभक्ष्य है ? किससे स्वास्थ्य का सुधार और किससे स्वास्थ्य का नाश होता है ? अगर तुम भोजन के विषय मे यह विवेक नही रखते तो किस प्रकार कहा जा सकता है कि तुम जीने के लिए खाते हो? सचमुच ही अगर तुम जीने के लिए खाते हो तो स्वास्थ्य को हानि पहुचाने वाली और जीवन को भ्रष्ट करने वाली वस्तुएँ कैसे खा सकते हो ? जैसे कोई भी मनुष्य अपरिचित पुरुष को अपने घर मे सहसा स्थान नही देता, उसी प्रकार जिस वस्तु के गुण-दोष का तुम्हे पता नही है उसे अपने पेट मे स्थान नही दे सकते । अगर तुम अपने पेट मे अनजान चीज को ठूस लेते हो तो तुम्हारे पेट को Dinner box (भोजन पेटी) के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? एक विद्वान् का कथन है कि ससार मे खा खा करा जितने लोग मरते हैं. भूख से उतने नही मरते । लोग कठ तक लूंस-ठूस कर खाते हैं और फिर डाक्टर की सेवा में जाते है । इस प्रकार ज्यों-ज्यो डाक्टर बढते जाते है त्योत्यो रोग बढते जाते हैं । डाक्टरो के बढ़ने से रोगो की सख्या घटी नही है । 'इतनी-सी चीज खाने से क्या हुआ जाता है ? अगर कुछ हो भी गया तो डाक्टर की दवा
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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