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________________ १४६-सम्यक्त्वपराक्रम (३) बादशाह प्रसन्न हो जाये तो कोहीनूर हीरा तो दे सकता है, मगर आँख का हीरा अर्थात् आँख का तेज चला गया हो तो वह नही दे सकता। विचार करो कि ऐसी तेजस्वी आख तुम्हे किसके प्रताप से मिली है ? बादशाह के द्वारा दिये हुए कोहीनूर हीरे को कोई फोडने लगे तो बादशाह उस पर नाराज होगा या नहीं ? अगर तुम अपनी आँखों का, जिसका मूल्य कोहीनूर हीरे की अपेक्षा भी बहुत अधिक है, परस्त्री या परपुरुप को दुर्भावना से देखने मे दुरुपयोग करो तो क्या परमात्मा तुम से प्रसन्न होगा ? अगर तुम परमात्मा को प्रसन्न करना चाहते हो तो अपनी आखो का सदुपयोग करो। ससार-बन्धन से मुक्त होने के लिए ही मनुष्य शरीर का सदुपयोग करना चाहिए । इस कथन का आशय यह है कि मनुष्य शरीर अप्रतिबद्ध-अनासक्त होने के लिए ही प्राप्त हुआ है। कहा जा सकता है कि अप्रतिवद्ध रहने से हमारे घर का और हमारी जाति का काम कैसे चल सकेगा ? इस प्रश्न का उत्तर ज्ञानीजन यह देते है कि किसी भी वस्तु पर जितना ममन्व रखोगे उतना ही दुख वढेगा । अतएव ममत्व भाव जितना कम हो, उतना ही भला है । साधारणतया प्रतिबन्ध का अर्थ वस्तु का दुरुपयोग है और अप्रतिबन्ध का अर्थ वस्तु का सदुपयोग है । उदाहरणार्थ -आँख देखने के लिए और कान सुनने के लिए प्राप्त हुए हैं । परन्तु आँख से क्या देखना चाहिए और कान से क्या सुनना च हिए, इस सवन्ध मे विवेक की आवश्यकता है । आँख परस्त्री पर कुदृष्टि डालने के लिए और कान पराई निन्दा सुनने के लिए नही मिले है । फिर भी आँख और कान का सदुपयोग किया
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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