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________________ तीसवाँ बोल - १३६ उत्तर -- अनासक्ति से जीव नि.सग अर्थात् राग-द्वेषममत्व से रहित होता है, और नि सग होने से उसका चित्त दिन-रात धर्मध्यान मे एकाग्र रहता है और एकाग्र होने से वह अनासक्त होकर अप्रतिबद्ध विचरता है । व्याख्यान भगवान् के इस कथन का अर्थ करते हुए टीकाकार कहते है कि साधु मासकल्पादि से अधिक किसी स्थान पर नही रहता । वह अप्रतिबद्ध होकर विहार करता है । सच्चा साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से किसी प्रकार का प्रतिबघ नही रखता । ' यह वस्तु मेरी है' इस प्रकार द्रव्य से, 'यह क्षेत्र मेरा है' इस प्रकार क्षेत्र से, कालमर्यादा का उल्लघन करके रहने मे काल से और किसी के प्रति मन मे राग-द्वेष रखकर भाव से, साधु प्रतिबंध नही रखता । इस प्रकार साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी प्रतिबन्धो से रहित होकर अनासक्त - अप्रतिबद्ध होकर विहार करता है । टीकाकार ने तो मूल सूत्र का इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है, परन्तु यह बात भलीभाति हृदय में उतारने के लिए उसका विशेष स्पष्टीकरण करना आवश्यक है । सामान्य रूप से तो अप्रतिबद्धता बहुत ही मामूली सी बात मालूम होती है, परन्तु गहरा उतर कर विचार किया जाये तो अप्रविद्धता शब्द मे और उसके भाव मे गूढ अर्थ छिपा है । अप्रतिबद्धता का अर्थ है, किसी भी पदार्थ के प्रति आसक्ति न रखना । जो व्यक्ति पकज के समान
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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