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________________ उनतीसवां बोल-१२५ दुःख को अपना ही दु ख समझना अनुकम्पा है । इस प्रकार की अनुकम्पा विषय-सुख के इच्छुक के मन मे नही उत्पन्न होती । विषयसुख की इच्छा न रखने वाले को ही ऐसी अनुकम्पा उ पन्न होती है । विषयसुख का अभिलाषी तो अपने विषयसुख को प्राप्त करने का ही प्रयत्न करता है, फिर दूसरे लोग चाहे जीए, चाहे मरे। जो विषयसुख का त्यागी है, उसके हृदय मे दूसरे को दु खो देखकर अनुकम्पा पैदा होती है दूसरो के दुख से उसका हृदय काप उठता है । __ आजकल तो दयालु पुरुष को कायर कहते हैं, परन्तु शास्त्र के अनुसार हृदय में अनुकम्पा-दया होना सद्गुण है। जिन लोगो मे विषयसुख की लालसा नही रहती उन्ही मे यह सद्गुण पाया जाता है । जिनमे विषयसुख भोगने की लालसा बनी हुई है, उनमे दया या अनुकम्पा नही होतो । उदाहरणार्थ- कोई कसाई बकरे को मारता हो तो उस समय तुम्हारे हृदय मे दया उत्पन्न हो यह स्वाभाविक है । परन्तु उस कसाई को दया नही, क्योकि उसे बकरे का मास खाने की लालसा है। अगर उसमे बकरे का मांस खाने की लालसा न होती तो उसके हृदय मे भी अनुकम्पा या दया उत्पन्न होती । अनुकम्पा के विषय मे शास्त्र में भी कहा है एव खु णाणिणो सार जं न हिसइ किंचणं . अहिंसा समय चेव एयावत्त वियाणिया । - सूयगडागसूत्र। अर्थात-किसी भी जीव की हिंसा न करना ही शास्त्र का सार है । ज्ञानीजन अहिंसा-अनुकम्पा को ही सिद्धान्त का सार कहते हैं । शास्त्र सुनने पर भी जिस मनुष्य के
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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