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________________ १२०-सम्यक्त्वपराक्रम (३) गया है । सूत्र में आये 'सुहसाया' शब्द के सुखसाता और सुखशय्या दोनो अर्थ किये जाते है । सुखशय्या के चार भेद करके उनका जो विवेचन किया गया है उस सब का सार यह है कि वास्तव में बाहर के पदार्थों मे सुख नही है । सुख तो अन्दर ही है । सुख स्वाधीनता मे है, पराधीनता मे नही । जितनी-जितनी पराधीनता बढती है, उतना ही दुख वढता जाता है । इसके विपरीत जो जितना स्वाधीन है वह उतना ही सुखी है लोग' भी कहते तो हैं कि पराधीनता मे दुख और स्वाधीनता मे सुख है, परन्तु व्यवहार मे यह बात भूल जाते है । परतन्त्र रहना वालदशा है । जो तुम्हारे सच्चे हितैषी होगे वे तुम्हे इस बालदशा से बाहर निकालने का ही प्रयत्न करेगे । अगर तुम बालदशा से बाहर निकलना चाहते हो तो स्वाधीन बनने का प्रयत्न करो । तुम मोटर मे बैठते तो हो पर मोटर वनाना या चलाना नही जानते । ड्राइवर मोटर चलाता है किन्तु वह गडहे मे गिरा दे तो ? इस तरह इन बातो पर ध्यान रखकर पर.धीनता हटाओ और स्वतन्त्र वनो । आखिर स्वतन्त्र वनने मे ही सुख है। कदाचित् तुम कहोगे कि तैयार चीज लेने से तथा व्यवहार करने से पाप नहीं लगता । अतएव अपने हाथ मे कोई चीज बनाने की अपेक्षा तैयार चीज लेना ही उचित है । इसके उत्तर मे श्रावको का वर्णन करते हुए शास्त्र मे कहा गया है 'धम्मिया, धम्मियाणदा, धम्मोवएसगा, धम्मेण च वित्ति कप्पमाणे विहरइ ।'
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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