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________________ उनतीसवां बोल-११७ नही लाता तो समझना चाहिए कि वह मनुष्य कला सम्पादन मे अभी अधूरा है । पूर्ण कलाकुशल मनुष्य वही कहा जा सकता है जो सूत्र से अर्थ से और कर्म से कला का सम्पादन करता हो । अन्नविधि की तरह वस्त्रविधि, गहविधि आदि की भी कला है । ७२ कलाओ का सम्पादन करने वाला मनुष्य ही पहले कलाकुशन कहलाता था । आज तो कलाए प्रायः नष्ट हो गई हैं । आज लोग तैयार वस्तुए लेकर पराधीन बन रहे हैं, फिर भी तैयार वस्तु लेने मे अपने आपको स्वाधीन और निष्पाप मानते हैं । लेकिन शास्त्र का यह कथन है कि परावलम्बी, पराधीन रहने वाला दुखशय्या पर सोने वाला है और स्वावलम्बी-स्वाधीन रहने वाला सुखशय्या पर सोने वाला है तुम लोग सुन्दर मकान मे रहते हो, मिष्ट भोजन करते हो और अपने आपको सुखी मानते हो । परन्तु तुम उन वस्तुओ के लिए पराधीन हो, अतएवं शास्त्रकार तो तुम्हे दुखशय्या पर सोने वाला ही कहते हैं । शायद ही कोई भील ऐसा हो जो अपनो झोंपडी बनाना न जानता हो । मगर तुम जिस मकान मे रहते हो, उसे बना सकते हो ? अगर नहीं, तो स्वाधीन हो या पराधोन हो ? वास्तव मे स्वाधीन मनुष्य हो सुखी है और पराधीन मनुष्य ही दुखी है। यही बात दृष्टि मे रखकर युधिष्ठिर के महल की अपेक्षा व्यास की झोपड़ी श्रेष्ठ गिनी गई है। कहने का आशय यह है कि स्वलाभ मे आनन्द मानना और परलाभ की आशा न रखना ही साधु के लिए सुखशय्या है । सुखशय्या पर शयन करने से मन निराकुल बनता है। जो मनुष्य पराधीन परतन्त्र नहीं होता, उसी का मन व्याकु
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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