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________________ ११४-सम्यक्त्वपराक्रम (३) केवली को वन्दन करने के लिए श्रावक नही जाता। क्योकि श्रावक उस भावमय वस्तु को जानता नही है । इस प्रकार शास्त्र मे भी पहले व्यवहार की रक्षा की गई है । परन्तु आजकल अनेक लोग निश्चय के नाम पर व्यवहार का उच्छेद करते हैं। तुम कही पत्र लिखते हो तो साघओ के विषय मे लिखने हो कि अमुक जगह दस सत विराजमान है । पर क्या तुम्हे खातिरी है कि उन दसो साधुप्रो मे भावसाधुता है ? इस प्रकार व्यवहार मे जो साधु का वेष धारण करता है वही साधु माना जाता है। अगर साधुता होने पर भी गहम्थ का वेष धारण करे तो वह गृहस्थ ही समझा जाता है । तात्पर्य यह है कि मुड होने का अर्थ शिरोमु डन करना है। भगवान् कहते है कि जो मुड होकर निर्ग्रन्थप्रवचन के प्रति नि शक होता है वह सुखशय्या पर सोने वाला है। दूसरी सुखशय्या यह है कि, मुड होकर स्वलाभ मे ही आनन्द मानना और परलाभ की अपेक्षा न रखना । जो व्यक्ति दूसरे के लाभ के आधार पर आनन्द मानता है, कहा जा सकता है कि वह दु.खशय्या पर सोने वाला है । आज तुम लोगो मे जो दु ख नजर आ रहा है वह कहा से पाया है ? इस बात पर विचार करो । मनुस्मृति में कहा है'सर्वमात्मवश सुखम् ।' अर्थात् स्वाधीनता मे ही सुख है । तुमने सुना होगा-'पराधीन सपने सुख नाही।' अर्थात पराधीन पुरुष को स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता । नीतिकारो का यह कथन जानते-बूझते हुए भी आज तुम लोग पराधीनता की बेडी में जकडे हुए हो । स्वय ही
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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