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________________ ऍट्ठाईसवाँ बोल -ε इस प्रश्न के विषय मे पूज्य श्रीलालजी महाराज बहुत वार फर्माया करते थे कि रुपयों का चाहे जितना ऊँचा ढेर करो, क्या आकाश का अभी अन्त आ सकता है ? रुपयो का ढेर करने से आकाश का उतना हिस्सा अवश्य रुकता है, परन्तु उससे आकाश का अन्त नही आ सकता । कारण यह है कि आकाश अनन्त है इसी प्रकार जीवात्मा कितने ही सिद्ध हो, मगर ससार का अन्त नही आ सकता । वह बात श्रद्धागम्य है । तुमने भूतकाल और भविष्य को अनंन्त नही जाना है, फिर भी श्रद्धा के कारण ही उन्हे अनन्त कहते हो। तो जिस प्रकार श्रद्धा से काल को अनन्त मानते हो उसी प्रकार श्रद्धा से यह भी मानो कि जीव चाहें जितने सिद्ध हो तो भी ससार जीवरहित नही हो सकता । t भगवान् ने कहा है, जीव जब पूर्वसचित कर्मों का क्षय कर डालता है तब उसे अक्रिय दशा प्राप्त होती है और उसके बाद सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर परिनिर्वाण प्राप्त करता है अर्थात् उपाधिरहित होकर सर्वदुःखो का अन्त करता है । जीव जब उपाधिरहित बन जाता है तब उसे संसार मे वापस लौटन की आवश्यकता ही नही रहती । जैसे दग्धं ( जले हुए) बीज में से अकुर 'नही फूटता उसी प्रकार जिन्होने उपाधियो का अन्त कर डाला है, उन्हे ससार मे फिर अवतार या जन्मधारण करने की आवश्यकता हो नही रहती । ۳ I सिद्धि का ऐसा स्वरूप है । इस स्वरूप को जानकर कोई कहते है कि ऐसी सिद्धि किस काम की ? ऐसा कहने वालो से और क्या कहा जा सकता है ? जो लोग सिद्धि 20
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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