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________________ छठा बोल-६३ द्रौपदी-मेरे हृदय में एक सदेह उत्पन्न हो गया है। मैं आपसे उसका निवारण कराना चाहती हू। , धर्मराज- कहो, क्या सन्देह है ? द्रौपदी-जिस समय दुष्ट दुश्शासन ने मुझे नग्न करने का प्रयत्न किया था, उस समय मेरे शरीर का वस्त्र बढ़ गया था । वह खीचते-खीचते थक गया लेकिन मुझे नग्न नही कर सका था । इस घटना से धृतराष्ट्र का हृदय परिवर्तन हो गया था और उन्होने मुझसे वर मागने के लिए कहा था । उस समय मैंने यह वर मागा था कि मेरे पति को गुलामी से मुक्त कर दिया जाये । उन्होने मेरा यह वचन मानकर आप सबको मुक्त कर दिया था और राजपाट भी वापस सौंप दिया था । इस प्रकार वह घटना समाप्त हो गई थी । फिर आप दूसरी बार जुआ क्यो खेले ? जुआ खेलकर दूसरी बार बघन मे क्यो पडे ? क्या इस प्रश्न का आप समाधान करेंगे ? युधिष्ठिर-जब पहली बार मैंने जआ खेला तब तो मेरी भूल थी, मगर दूसरी बार खेलने मे मेरी कोई भूल नही थी । वह तो पहलो भूल के पाप का प्रायश्चित्त था। मेरी इच्छा थी, मैंने पहली बार जो भूल की है, उसका पश्चात्ताप मुझे करना ही चाहिए उस भूल का दण्ड मुझे भोगना ही चाहिए । मै उस भूल के दण्ड से बचना नही च हता था । यद्यपि अपनी भूल का वात्कालिक फल मुझे मिल गया था, पर तुम्हारे वरदान से वह दण्ड क्षमा कर दिया गया था। भूल करके तुम्हारे वरदान के कारण दण्ड से बच निकलना कोई अच्छी बात नही थी। जो स्वय पाप करता है किन्तु पत्नी के पुण्य द्वारा, पाप के दण्ड से बचना
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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