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________________ छठा बोल-५५ से सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप सच्चे सुख की प्राप्ति हो। जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही देखना और मानना सम्यग्ज्ञान का अर्थ है । हिंसा को हिंसा मानना और अहिंसा को अहिंसा समझना चाहिए । सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए हिसा और अहिंसा का स्वरूप तथा इन दोनो के भेद समझने आवश्यक है । ऐसा करने से ही हिंसा को हिंसा और अहिसा को अहिंसा माना जा सकता है। यहा अहिंसा के सबध मे कुछ प्रकाश डाला जाता है। ___ 'अहिंसा' अब्द 'अ' तथा 'हिसा' के सयोग से वना है। व्याकरण के नियमानुसार यहा नत्र समास किया गया है । जहा नत्र समास होता है वहा कही-कही पूर्व पदार्थ को प्रधान बनाया जाता है, मगर 'अहिसा' गव्द मे पूर्व पदार्थ प्रधान नही हो सकता । जैसे 'अमक्षिक' पद मे पूर्व पदार्थ प्रधान है । पूर्व पदार्थ प्रधान होने के कारण 'अमक्षिक' पद से मक्खी का अभाव प्रतीत होता है। 'अहिंसा' पद मे भी यदि पूर्व पदार्थ की प्रधानता मानी जाये तो अहिंसा का अर्थ हिंसा का अभाव' होगा । लेकिन इस अभाव से किसी वस्तु की सिद्धि नही होती । अतएव 'अहिंसा' पद को पूर्व पदार्थ प्रधान नही माना जा सकता। नज समास ने कही-कही उत्तर पदार्थ को प्रधानता होती है । जैसे 'अराजपुरुष' पद मे उत्तर पद की प्रधानता है। अतएव 'अराजपुरुष' कहने से यह जाना जा सकता है कि राजपुरुप से भिन्न कोई और मनुष्य है । 'अहिसा' शब्द को अगर उत्तर पद-प्रधान माना जाये तो एक हिसा से भिन्न किसी दूसरी हिंसा का बोध होगा जैसे कि 'अराजपुरुष'
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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