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________________ छठा बोल-५१ वर्णन करूँ ! अनजान में मैंने वहुतेरे दोप किये हैं। उनकी बात ही अलग है। मगर जान-बूझकर जो दोष किये है और जिनको मै निन्दा भी करता हू, वही दोष फिर करने लगता हं । मैं दूसरे के दोष आख पसार कर देखने को तत्पर रहता हू, मगर अपने पहाड से दोषो को भी देखने की आवश्यकता नहीं समझता । मेरी यह स्थिति कितनी दयनीय है । - राजनीति, तथा धार्मिक एव सामाजिक व्यवहार में अगर अपने दोप देखने को पद्धति स्वीकार की जाये तो आत्मा का कितना कल्याण हो? मगर आजकल क्या दिखाई देता है ? मजिस्ट्रेट डेढ रुपया चुराने वाले को सजा देता है और स्वय हजारो रुपया चोरी से हजम कर जाता है। अगर वह अपनी ओर आंख उठाकर देखे तो उसे विदित होगा कि उसका कार्य कितना अनुचित है । जब मनुष्य अपने कार्य का अनौचित्य सोचता है तो उसे पश्चात्ताप हुए बिना नहीं रहता। भक्तजन अपने दोष परमात्मा के समक्ष नग्न रूप में प्रकट कर देते है । वे कहते हैं-'प्रभो । मैं अनन्त पातको का पात्र है।' इस प्रकार अपने पापो के प्रकाशन से आत्मा पाप-भार से हल्का हो जाता है । आत्मनिन्दा के द्वारा आत्मा जव निष्पाप वन जाता है तो उसे अपूर्व आनन्द को अनुभूति होती है । हा, पाप को दबाने का परिणाम बड़ा ही भय कर होता है । दवाये हुए पाप का परिणाम किस प्रकार भयकर होता है, यह बात धृतराष्ट्र की आलोचना से सहज ही समझी जा सकती है। आत्मनिन्दा करने से क्या लाभ होता है, इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा- आत्मनिन्दा करने का फल
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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