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________________ ४८-सम्यक्त्वपराक्रम (२) है। निष्पापा पतिव्रता गाँधारी ने बार-बार मुझसे कहा था कि दुर्योधन का त्याग कर दो। जब जूआ प्रारम्भ हुआ तभी गाधारी ने उग्रतापूर्वक मुझसे कहा था-'इस पापी दुर्योधन का परित्याग कर दो, अन्यथा उसके कारण कदाचित् कुल का भी सहार हो जायेगा ।' मगर पुत्रस्नेह के वश होकर मैंने उसकी बात नही मानी। पुत्र के प्रति अनुचित स्नेहमोह रखने का यह परिणाम आया है कि आज कुल का सहार हो गया और पुत्र-वियोग' की वेदना भोगनी पडी!' इस घटना का उल्लेख करने का आशय यह बतलाना है कि पाप को छिपा रखने से अन्त मे कितना दुष्परिणाम होता है ! यह बात ध्यान में रखकर पाप को दबाने की चेष्टा मत करो । उसे तत्काल प्रकाश मे ले आओ। " सिख अर्गन होते चाह चली, खर कूकन की धिक्कार उसे, जिन खाय के अमृत वाछ रही, लीद पशुअन की धिक्कार उसे। जिन पाय के राज की आश रही चक्की चाटन की धिक्कार उसे, जिन पाय के ज्ञान की आश रही जग विषयन की धिक्कार उसे। इस कविता मे जिन शब्दो का प्रयोग किया गया है वे दूसरे के बोधक है । मगर हमारे लिए विचारणीय यह है कि मघर वाद्य की मनोहारिणी ध्वनि यदि कर्णगोचर होती हो तो उसे छोड कर गधे की कर्ण कटक आवाज सुनने की इच्छा करने वाले को धिक्कार के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? इसी प्रकार जो पुरुष अपने पाप छिपाता है तथा सुकृत करने की शक्ति और योग्य अवसर पा करके भी दुष्कृत करता है, उसके लिए धिक्कार के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? इसके अतिरिक्त जो अपनी आत्मा की निन्दा नही करता और परनिन्दा के लिए कमर कसे रहता
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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