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________________ छठा बोल-४३ . आत्मनिन्दा के द्वारा उसे दूर करना चाहिए । यद्यपि मूलपाठ मे सिर्फ निन्दा-शब्द का प्रयोग किया गया है, तथापि । उसका अभिप्राय यहा आत्मनिन्दा करना ही है। परनिन्दा के साथ उसका कोई सम्बन्ध नही है। शिष्य ने भगवान से प्रश्न किया-आत्मनिन्दा करने , से जीव को क्या फल मिलता है ? किसी भी कार्य का निर्णय उसके फल से ही होता है। आम और एरड के वृक्ष । में फल की भिन्नता से भेद किया जाता है । अतएव यहा । यह जान लेना आवश्यक है कि, आत्मनिन्दा करने से किस फल का लाभ होता है ? फल पर विचार करने से यह भी ज्ञात हो जायेगा कि आत्मनिन्दा करना उचित है या नही? इसी अभिप्राय से शिष्य ने भगवान् से यह प्रश्न पूछा है कि आत्मनिन्दा करने से क्या फल मिलता है ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा -आत्मनिन्दा करने से 'मैंने यह खराब काम किया है' इस प्रकार का पश्चात्ताप होता है। __ पश्चात्ताप करने मे लोगो को यह भय रहता है कि मैं दूसरो के सामने हल्का या तुच्छ गिना जाऊँगा । मगर इस प्रकार का विचार उत्पन्न होना पतन का कारण है ।। सच्चे हृदय से आत्मनिन्दा की जायेगी तो 'मैंने अमुक दुष्कृत्य : किया है अथवा मैंने अमुक पाप छिपाया है। इस प्रकार का । विचार आये विना रह ही नही. सकता । ऐसा करने से आत्मा मे अपने दोषो को प्रकट करने का सामर्थ्य आता है और अपने पापो को छिपा रखने की दुर्वलता दूर होती है। जैसे दर्पण मे अपना मुख देखते हो, उसी प्रकार अपनी आत्मा को देखो तो विदित हो जायेगा कि आत्मा मे कितनी और किस प्रकार की त्रुटिया विद्यमान हैं ? दर्पण में मुख
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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