SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४-सम्यक्त्वपराक्रम (२) हमारे भाग्य से ही सेठ के लडके को रोग हुआ था। उनका यह कथन सुनकर सेठ क्या कह सकता था? इसी प्रकार आत्मा को किसी प्रकार की त्रुटि का रोग हुआ है । भगवान् महावीर महावैद्य के समान है। वे आलोचना को ही उस रोग की अमोघ औषधि बतलाते हुए कहते हैं 'हे श्रमणो हे अमणियो । यह औपध ऐसी अमोघ है कि इसके सेवन से तुम रोगमुक्त हो जाओगे। इतना ही नही, किन्तु तुम्हारे साथ दूसरो के भी रोग मिट जाएंगे।' इस प्रकार भगवान् ने हम लोगो को अमोघ औपध बतलाई है। मगर जो औषध का सेवन ही नही करेगा, उसका रोग किस प्रकार मिटेगा ? भगवान तो त्रिलोकनाथ हैं। वह नरक योनि तक के जीवो का दुख मिटाना चाहते है। इसी उद्देश्य से उन्होने निर्ग्रन्थप्रवचन रूपी औपधि का उपदेश दिया है और कोई उसका सेवन करे या न करे, किन्तु हमे अर्थात् साधसाध्वी, श्रावक-श्राविका को तो भगवान् की बतलाई हुई दवा लेनी ही चाहिए । अगर हमने नियमित रूप से दवा का सेवन किया तो हमारा रोग नष्ट हो जायेगा । हमारे रोग के नाश से दूसरो को भी दवा पर विश्वास होगा और वे भी उसका सेवन करके अपने भवभ्रमण का अन्त कर सकेगे। इस प्रकार आलोचना करने से करने वाले को तो लाभ होता ही है, मगर दूसगे को भी काफी लाभ पहुँचता है। आलोचना का उद्देश्य क्या है ? आलोचना न करने से क्या हानि होती है ? और आलोचना करने से किस फल की प्राप्ति होती है ? इन सब प्रश्नो का समाधान करने वाली एक गाथा टीकाकार ने उद्धृत की है। वह यह है उद्धियदंडो साह, अचिरं जे सासयं ठाण । सोवि अणुद्ध दंडो ससारे पवडो होति ॥
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy