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________________ ____३२-सम्यक्त्वपराक्रम (२) का महत्व भी वहुत है और यदि सरलतापूर्वक परमात्मा को वदन किया जाये तो आत्मा को परमात्मभाव को भी प्राप्ति होती है । दर्पण में मुख देखना हो तो आवश्यक है कि दर्पण और मुख के बीच कोई व्यवधान न हो। अगर थोडासा भी व्यवधान हुआ तो मुंह नही दिख सकता। इसी प्रकार आलोचना करते समय बीच में जरा भी कपट का व्यवधान रखा गया तो वह सच्चो आलोचना नहीं होगी, एक प्रकार का ढोग' होगा । इससे आलोचना का असली लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता । इसलिए आलोचना कपटरहित ही करनी चाहिए । ससार में जो भी कोई आविष्कार देखा जाता है, उसका मूल कारण दुख है । लज्जा का दुख न होता तो वस्त्र का आविष्कार किसलिए होता ? भूख की पीडा न होती तो भोजन के आविष्कार की क्या आवश्यकता थी? इन व्यावहारिक उदाहरणो के अनुसार यदि आत्मा मे किसी प्रकार की त्रुटि न होती तो आलोचना किसलिए और किसकी की जाती ? मगर आत्मा में किसी प्रकार की त्रुटि है और इसी कारण आलोचना क'ने की आवश्यकता है । आत्मा मे त्रुटि होना छद्मस्थ आत्मा का स्वभाव है । शास्त्रकारों का कथन है कि उस त्रुटि को दबा कर मत रखो । उसे सरलतापूर्वक बाहर निकालने का प्रयत्न करो । इस तरह त्रुटि दूर करने का प्रयत्न करने से आत्मा की अन्यान्य त्रुटियां भी दूर हो जाएंगी और आत्मा के अध्यवसायो मे ऐसी उज्ज्वलता आएगी कि समस्त कर्म नष्ट हो जाएगे। अपनी त्रुटिया दूर करने से अपने को तो लाभ है ही, साथ ही अन्य आत्माओ को भी लाभ पहुँचता है। अपनी आत्मा को लाभ
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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