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________________ २५०-सम्यक्त्वपराक्रम (२) उसका उत्माह भी भा नहीं होता। इसका कारण यह है कि इस स्थिति मे सूत्रवाचना देने के कार्य को वह दूसरे का कार्य नही समझेगा बल्कि अपना ही कार्य समझेगा और अपने, अपने लाभ के कार्य मे जैसा आनन्द और उत्साह रश्ता है वैमा आनन्द और उत्साह दूसरे के कार्य मे नहीं र ता। उदाहरणार्थ -एक काम आपका नौकर करता है और दूसरा काम आपका पुत्र करता है । इन दोनो मे से आपके पुत्र के मन मे काम करते समय जैसा उत्साह होगा वैसा उत्साह नौकर के मन मे नही होगा, यह स्वाभाविक है। ऐमा होने का कारण भावना की भिन्नता है। नौकर की भावना तो यही होती है कि यह पराया काम है । पुत्र उसे अपना ही काम समझता है । इस प्रकार भावना मे अन्तर होने से उत्साह मे भी अन्तर पड जाता है। उत्साह हाने मे कार्य अच्छा होता है . उत्साह के अभाव मे वैसा नही होता । कहने का आशय यह है कि जैमे दूसरो के कामो को अपने ही काम मानने मे उन्हे करने मे उत्साह अधिक रहता है, उसी प्रकार वाचना देने के कार्य को अपना ही समझने से आत्मा मे उत्साह आता है । इसी उद्देश्य से यह कहा गया है कि वाचना देने का कार्य अपना ही समझना चाहिए। मद्गुरु जैसी शिक्षा दे सकता है वैसी शिक्षा भाडे का शिक्षक नही दे सकता । सद्गुरु की शिक्षा हृदय मे जैसी पैठ जाती है, भाडे के शिक्षक की वैसी नही पैठ सकती । वैज्ञानिको का कयन है कि छोटी उम्र के बालको के हृदय मे माता-पिता की शिक्षा के जैसे मम्कार पडते हैं, वैसे मस्कार बड होने पर नहो पड सकते । अगर माता-पिता मुमम्कारी हो तो बालको के अन्त करण मे शिक्षा के अच्छे
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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