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________________ २३६-सम्यक्त्वपराक्रम (२) तुम मेरे हृदय को पहचान सके और मैं तुम्हारे हृदय को परख सका । संवत्सरी पर्व का सुअवसर न आया होता तो हम लोग एक-दूसरे के हृदय को न जान पाते । चंडप्रद्योत को साथ लेकर उदायन अपने राज्य मे माया । वहा उसने अपनी कन्या उसे व्याह दी । उसने कन्यादान मे जीता हुआ और कुछ अपना राज्य चडप्रद्योत को दे दिया तया वह सुवर्णगुटका दासी भी दे दी। . इसे कहते हैं क्षमापणा | क्षमा के आगे किसी भी प्रकार का वैर-विरोध या क्लेश-कलह नही ठहर सकता । तुम क्षमापणा तो करते हो, मगर जिमके साथ क्षमापणा करते हो, उसके प्रति वैपभाव तो अवशेप नही रहने देते? हृदय से को हुई क्षमापणा के सामने वर-विराध कैसे टिक सकता है ? भगवान् कहते है सच्ची क्षमापणा करने वाला ही मेरा आराधक है । अतएव सच्चे आराधक बनने के लिए सच्ची क्षमापणा करो । सच्चे हृदय से क्षमापणा करोगे तो तुम्हारा कल्याण हुए बिना नहीं रहेगा ।
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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