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________________ २३४-सम्यक्त्वपराक्रम (२) क्षमा कर सकता है ? उसका हृदय तो संताप से धधकता रहता है । फिर भी ऊपर से क्षमा करना तो एक प्रकार का दभ ही कहा जा सकता है । मैं इस प्रकार का दम्भ नही करना चाहता।' चडप्रद्योत की इस बात पर उदायन को क्रोध आ सकता था, मगर उदायन ने अपने मन में सोचा- इसका कहना तो ठीक है। उसने चडप्रद्योत से कहा -'मैं तुम्हारा अभिप्राय समझता हू । वास्तव में तुम अपने पद से भ्रष्ट हो गये हो और इस समय मेरी कंद मे हो, अतएव तुम्हारे हृदय मे शान्ति कैसे हो सकती है ? इस समय तो मैं कुछ नही कर सकता, लेकिन विश्वाम दिलाता हू कि जो कुछ मैने तुम से जीत लिया है, वह सब तुम्हे लोटा दूंगा और कुछ अधिक भी दे दूंगा । इतना ही नहीं वरन् तुम्हे पहले की तरह सम्मान भी दूंगा । लो अब तो मेरा अपराध क्षमा करोगे न ? उदायन की यह उदारता देखकर चडप्रद्योत की आखो में आसू आ गये । वह अपने मन मे कहने लगा कितनी उदारता है !' वस्तुतः उदायन की इस प्रकार की उदारता का महत्व चडप्रद्योत ने ही समझा था। उस समय उदायन, चडप्रद्योत को कितना प्रिय लगा होगा, यह तो चडप्रद्योत ही जाने । सीता को राम और दमयन्ती को नल कितने प्यारे लगते थे, सो सीता और दमय ती को छोड और कौन अनुमान कर सकता है। उदायन इस प्रकार की उदारता प्रदर्शित करके निर्भय हो गया । लोग समझते है कि जो विजयी होता है वह निर्भय बन जाता है और पराजित होने वाला भयग्रस्त रहता
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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