SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तरहवां बोल - २२६ मत करो। अगर तुम उसे खमाकर उसकी निन्दा करते हो तो समझना चाहिए कि तुमने सच्चे रूप मे खमाया ही नही है । वह नहीं खमाता तो उसके कर्म भारी होगे, मगर तुम तो अपनी ओर से क्षमापणा करके उपशान्त हो जाओ । अगर तुम हृदयपूर्वक दूसरे से खमाते हो तो तुम आराधक ही हो । कहने का आशय यह कि कोई दूसरा खमावे या न खमावे लेकिन तुम तो दूसरे को खमा ही लो । अगर तुम दूसरे को खमा लेते हो तो तुम अपने हृदय की कलुषता दूर करते हो । जिसके चित्त की कलुषता दूर हो जाती है उसका चित्त प्रसन्न हो जाता है योगसूत्र मे कहा है' भावनात श्चित्तप्रसादनम् । ' अर्थात् - भावना से चित्त को प्रसन्नता प्राप्त होती है । चित्त को प्रसन्न करने वाली भावनाएँ चार है-करुणाभावना, मध्यस्थभावना, प्रमोदभावना और मैत्रीभावना । क्षमापणा करने से मैत्रीभावता प्रकट होती है । दूसरे के साथ वैरविरोध या क्लेश-ककास हो गया हो तो उससे क्षमा का आदान-प्रदान करके हृदय में मैत्री भावना प्रकट करनी चाहिए | ऊपर-ऊपर से क्षमापणा की जाये तो वह सच्ची मैत्रीभावना नही है । भगवान् कहते हैं - क्षमापणा करने से हृदय का पश्चात्ताप और क्लेश- कलह मिट जाता है तथा हृदय में प्रसन्नता एव प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभावना उत्पन्न होती है । इस प्रकार क्षमापणा द्वारा प्रसन्नता और मैत्रीभावना प्रकट हो जाने के फलस्वरूप किसी प्रकार का भय नही रह जाता अर्थात् निर्भयता प्राप्त होती है ।
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy