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________________ सोलहवाँ बोल-२१६ न सुधरे तो तुम्हें पश्चात्ताप या प्रायश्चित्त करना पड़ता है । इस क्रियाकाड से तुम कब छुटकारा पाओगे और कब तुम्हे शाति मिल सकेगी ! हम सब पापी है, यह तो तुम मानते ही हो । अब हमारी मान्यता देखो, वह कितनी परिपूर्ण है ! हमारा प्रयत्न व्यर्थ है । फिर भी आखिर मुक्ति, तो हमे चाहिए ही । हम प प का बोझ कैसे उठा सकते हैं। इसलिए हम उस पाप का बोझ ईसु पर लाद देते हैं । ईसु ईश्वर का एकमात्र निष्पाप पुत्र है । ईसु को ईश्वर का वरदान है । जो ईसु को मानता है, उसका पाप ईश्वर वो डालता है । यह ईश्वर की अगाध उदारता है । ईसु की मुक्ति सम्बन्धी योजना हमने स्वीकार की है, अतएव हमे हमारे पाप लगते ही नही हैं । पाप तो होता ही है । इस जगत् में पाप किये बिना रह ही किस प्रकार सकते हैं? अतएव ईसु ने सारे ससार के पाप एक ही बार प्रायश्चित्त करके धो डाले हैं। ईसु के इस महा बलिदान को जो लोग स्वीकार करते हैं, वे उस पर विश्वास करके शाति-लाभ कर सकते हैं। कहा तुम्हारी अशाति और कहाँ हमारी शान्ति ! यह दलील मेरे गले न - उतरी । मैंने नम्रतापूर्वक उन्हे उत्तर दिया- अगर सर्वमान्य ईसाईधर्म यही है तो मुझे वह नहीं चाहिए । मैं पाप के परिणाम से मुक्ति नही चाहता, मैं पापवृत्ति से और पापकर्म से मुक्त होना चाहता हूं।' १. गाधीजी ने अपनी आत्मकथा मे इस आशय का उल्लेख किया है । इस उल्लेख का सरल अर्थ यह है कि गाधीजी कहते थे कि पाप के परिणाम से नही बचना चाहिए वरन पापवृत्ति से बचना चाहिए । पापवृत्ति से बचकर ही मुक्ति
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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