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________________ सोलहवां बोल-२१७ इस प्रकार भावप्रायश्चित्त करने वाला दर्शन की भी विशुद्धि करता है, ज्ञान की भी विशुद्धि करता है और आचार तथा उसके फल मोक्ष का भी आराधक बनता है । प्रायश्चित्त शब्द इतना व्यापक है कि उसे समस्त दर्शनकारो ने स्वीकार किया है । जैनशास्त्रो के अनुसार प्रायश्चित्त से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशुद्धि होती है । श्री स्थानागसूत्र मे, तीसरे स्थानक मे प्रायश्चित्त के तीन भेद, आठवे स्थानक मे आठ भेद, नौवे स्थानक मे नौ भेद और दसवें स्थानक मे दस भेद बतलाये है । इन सब का सार यही है कि प्रायश्चित्त करने से दर्शन की विशुद्धि होती है, अत प्रायश्चित्त करना चाहिए । अन्य दार्शनिको ने भी प्रायश्चित्त को स्वीकार किया है, पर जैनशास्त्र कहते है कि प्रायश्चित्त द्वारा पाप का विशोधन करो । पाप के सन्ताप से बचते रहने की इच्छा करना और पाप का त्याग न करना प्रायश्चित्त नहीं है। पाप के परिणाम मे अर्थात् पाप के दण्ड से घबराने की आवश्यकता नही, वरन् पाप से भयभीत होना चाहिए । कितनेक दर्शनकार कहते है पाप तो होता ही रहता है । पाप से बचना शक्य नहीं है, अत. पाप के परिणाम से बचने के लिए ईश्वर की प्रार्थना करना चाहिए। मगर जैनदर्शन कहता है कि पाप के फल से बचने का प्रयत्न नही करना चाहिए । अन्य दर्शनकारो का कथन और उसकी असगतता, आजकल के युगप्रवर्तक माने जाने वाले गाँधीजी की आत्मकथा का उदाहरण देकर बतलाता है। गांधीजी जब विलायत जा रहे थे तब राजकोट मे उन्होने अपनी माता के आग्रह से अपने सम्प्रदाय के बेचरजी
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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