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________________ २१४-सम्प्रक्त्वपक्रम (२) सक्षेप में सिर्फ इतना ही कहता हूं कि 'प्राय' और 'चित्त' इन दो शब्दो के मेल से प्रायश्चित्त शब्द बना है। टीकाकार ने इसका अर्थ करते हुए कहा है - प्रायः पापं विजानीयात चित्त तस्य विशोधनम् ।। प्राय' का अर्थ है-पाप । अत्यन्त रूप से आत्मा का अतिचार या दोषो मे गमन करना पाप है और 'चित्त शुद्धो' धातु से चित्त शब्द बना है, जिसका अर्थ विशोधन है। इस प्रकार जिस अनुष्ठान से या व्रत से पाप का विशोधन हो उसे प्रायश्चित्त कहते है । इस प्रायश्चित्त के सम्बन्ध मे भगवान से यह प्रश्न पूछा गया है कि प्रायश्चित्त करने से जीव को क्या लाभ होता है ? प्रायश्चित्त चार प्रकार का है- (१) नाम' (२) स्थापना (३ ) द्रव्य और (४) भाव से । नाम प्रायश्चित्त और स्थापना प्रायश्चित्त तो केवल उच्चार या कथन रूप ही है । द्रव्य प्रायश्चित्त लोकरजन के लिए किया जाता है। वह एक प्रकार से लोक-दिखावा ही है । हृदय के पापो को नष्ट करने की भावना से जो व्रत या अनुष्ठान किया जाता है वह भाव प्रायश्चित्त है । प्राय शब्द का अर्थ ' विशेप' भी है । इस पर प्रश्न हो सकता है कि विशेष पाप किसे कहना चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि सूक्ष्म अर्थात् जिसका प्रतीकार न किया जा सके उस अप्रतिकारी पाप का प्रायश्चित्त नही , होता, वरन् जो पाप प्रतिकारी है अर्थात् जिस पाप का प्रतीकार करना शक्य है और जो कार्य शास्त्र मे निषिद्ध ठहराया गया है, उसो पाप कार्य का प्रायश्चित्त होता है ।
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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