SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१०-सम्यक्त्वपराक्रम (२) है। फिर भी अगर कोई साधु इस निर्णय के विरुद्ध कोई बात कहता है तो वह कैसे उचित कही जा सकती है ? यो तो प्रत्येक का मस्तिष्क और विचार जुदा-जुदा होता है । अगर प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने विचारो की वात करने लगे और निश्चय की हुई बात के विरुद्ध मत प्रकट करे तो कैसे काम चल सकता है ? शास्त्र मे जितव्यवहार ही माननीय बतलाया है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है धम्म जियं च ववहारं बुद्ध हायरियं सया । तमायरन्तो ववहारं गरहं नाभिगच्छई ॥ अर्थात-धर्म के लिए आचार्यों ने मिलकर जो जिताचार बनाया है, उसी जिताचार के अनुसार व्यवहार करने वाला कदापि निन्दापात्र नहीं बनता बल्कि आराधक ही रहता है। __ इस कथन के अनुसार पांच महापुरुष मिलकर, निस्पृहतापूर्वक विचार करके जो नियम-निर्णय करते हैं, वह जिताचार कहलाता है और जिताचार के अनुसार चलना उचित है । आजकल के लोगो की बुद्धि में उत्पात भरा रहता है अतएव सवत्सरी वगैरह के नाम पर बेकार क्लेश खडा किया जाता है । बुद्धिमान पुरुषो को इस प्रकार के क्लेश से बचना चाहिए। ___कालप्रतिलेखन करने से जीव को क्या लाभ होता है, इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा है कि कालप्रतिलेखन से जीव के ज्ञानावरण आदि कर्मों की निर्जरा होती है ।
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy