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________________ १६-सम्यक्त्वपराक्रम (२) कि केसर की क्यारी में धूल कहा से पड गई ? जैसे केसर मे चूल पड जाना सह्य नही होता उसी प्रकार व्रत मे दोष लगना भी सह्य नही होना चाहिए और अपने अपराध की निन्दा करनी चाहिए । अपने दोषों की निन्दा करते-करते जो आलोचना की जाती है, वही सच्ची आलोचना है । आत्मनिन्दा भी द्रव्य से नही वरन् भाव से करनी चाहिए और आत्मनिन्दा के साथ गर्दा भी करनी चाहिए और अकृत्य के शोधन के लिए गुरु द्वारा दिये हुए प्रायश्चित को स्वीकार करना चाहिए । भगवान् ने कहा है कि इस प्रकार विधिपूर्वक आलोचना करने वाला जघन्य तीन भवों मे और उत्कृष्ट पन्द्रह भवो मे अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है। श्री भगवती सूत्र में कहा है- आलोचना का आराधक जधन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है।' उत्कृष्ट आराधक तीन भव मे मोक्ष जाता ही है । आप भी इस प्रकार की आलोचना करके आत्मा का कल्याण करो। किसी भी पाप को दबाओ या छिपाओ मत, उसे सरलता.' पूर्वक प्रकट कर दो । आलोचना करने मे सत्य का ही व्यवहार करों । परमात्मा का सच्चा भक्त असत्य नही बोलेगा और न दुराचार ही सेवन करेगा! असत्यभाषी और दुराचारी परमात्मा का सच्चा भक्त हो ही नही सकता । परमात्मा की भक्ति करना और सत्य एव शील का सेवन करना एक ही बात है । सत्य मे महान् शक्ति है। सत्य के प्रभाव से असिपिजर मे से भी मनुष्य अक्षुण्ण बच निकल सकता है। इस प्रकार के निष्कलक सत्य की आराधना करने में प्राण भले ही चले जाएं, मगर सत्य का परित्याग नही करूँगा, ऐसी दृढभावना रहनी चाहिए । फिर इसी दृढता से सत्य
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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